भीड़ है क़यामत की, और दिले नादान है ।
जिन्दगी की आरजू है, मौत का सामान है ॥
हिज्र में तेरी सनम, ये हाल मेरा हो गया,
न कोई हशरत है दिल में, न कोई अरमान है ॥
है नहीं गमख्वार कोई, बज्म-ए-उल्फत में यहाँ,
तन्हां रह कर जिन्दगी, हो चुकी वीरान है ॥
आशियाँ उसने जला कर, खाक मेरा कर दिया,
जिन्दगी जिसके लिए, हो चुकी कुर्बान है ॥
इंतकाम-ए-बेवफाई, मंजिल-ए-मक़सूद है,
वास्ते तेरे सनम, मेरा खुला ऐलान है ॥
वादी-ए-गुर्बत की चुभन, दिन-ओ-रात रहती है,
हर ख़ुशी मेरी हुई, मुझसे ही अनजान है ॥
प्रदीप कुमार पाण्डेय
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